सबक.....✏
इक पंछी उड़ा अज़नबी शहर की ओर :
ले ताना-बाना बुनने को,अपने सपनो की डोर।
ट्रेन अपने निर्धारित स्टेशन पे रुकी और सीटी बजते ही मैं नींद से जागा आँख मलते हुए बाहर देखा तो मेरा स्टेशन आ चुका था। मैं उतरने के लिए अपना सामान समेटने लगा और ट्रेन से उतरकर कैंटीन की तरफ़ बढ़ा, गर्मी की छुट्टियाँ चल रही थी इस कारण आने जाने वालों की भीड़ भी जबर्दस्त थी। गर्मी और भीड़ देखकर मैं ऊफ करना चाहा। पर करता भी क्या मैं, ये पेट जो भूख का मारा था। मन ही मन सोचने लगा जो सुकून अपने घर और गांव में है वो कहीं और नही है।
मैं काउन्टर पर पहुंच कर मेन्यू कार्ड देखते हुये छोला-चावल का आर्डर देकर फिर से अपने बेंच पर आकर बैठ जाता हूं। और अपने सपनों में खो जाता हूं, मैं नये शहर में आकर काफ़ी रोमांचित था पर कहीं-न-कहीं मेरे मन में इक भय भी था कि इस नये शहर में स्वयं को स्थापित कर पाऊंगा भी या नही। फिर भी मैं स्वयं का बहुत बड़ा प्रशंसक रहा हूं इसलिए स्वयं को तसल्ली देते हुए मन ही मन दृढ़ निश्चय करने लगा और घर की स्थिती को बदलने के बारे में सोचने लगा। पर वक्त के बारे में कौन जानता है। तभी सामने से आवाज़ आती है भैया! आपका छोला-चावल तैयार है, मैं शीघ्रता से काउन्टर की तरफ़ बढ़ा और झट-पट खाना खत्म कर वहां से चलने की तैयारी करने लगा। "मैं सकुशल पहुंच गया" यह समाचार देने के लिए मैं फोन करने की सोच ही रहा था तभी मेरे फोन की घंटी बजती है और देखता हूं तो सचमुच में पिता जी का फोन था, पिता जी ने अपनी बात पूरी कर मां को फोन देते हैं और माँ मेरी आवाज़ सुनकर अपनी भावनाओं को रोक नही पायी और मेरा भी गला भर आया इससे पहले मां अपनी प्यार भरी हिदायतें दे मैंने बात काटते हुए मां को बताया आज मैंने खाने में अपनी पसंदीदा आलू के पराठें खाए। पर मां मेरा झूठ समझ गई थी और बोली पगले! इस गर्मी में "गर्मी वाले मीठे आलू के पराठे"? मैं मुस्कुराया और आगे कुछ बोल ना सका। ढेर सारी बातें होने के बाद माँ ने समझाते हुए फोन रखा, और मैं पिता जी द्वारा बताये गये हॉस्टल के पते के बारे में ऑटो चालक से पूछने लगा, और कितने रुपए लेंगे? जैसा की उनका पेशा ही होता किराया बढ़ा चढ़ा कर बताना। मैं बिना कुछ कहे सुने आगे बढ़ गया, दूसरे ऑटो वाले ने आवाज़ दिया- कहा जायेंगे सर?
मुझे अच्छा लगा उसके बात करने के तरीके से, मैंने दिए गए पते के बारे में बताया और झट से आटो में बैठ गया। खास बात यह थी की वह मेरा हमउम्र था। तो हम लोगों का पूरे रास्ते भर बातों का सिलसिला चलता रहा। मैंने पूछा आप इस उम्र में पढ़ने की बजाय काम कर रहे हैं? वह मुस्कुराते हुए बोला- सर जिम्मेदारियाँ इंसान को बड़ा बना देती हैं, उम्र नही। सर! आप मेरा छोड़िए अपने बारे में बताइए इस शहर में नये आये हैं क्या? जी हां। फिर आप चोर-उचक्कों से सावधान रहिएगा। यहां कोई मुफ्त का सामान तो क्या सुझाव भी नही देता। बातों ही बातों में वह यहां के हालातों से वाकिफ़ करा गया। मेरा हॉस्टल भी करीब आ गया था उसको मैंने किराया देते हुए दिल से शुक्रिया बोला और थोड़ी देर बाद मैं अपने हॉस्टल के रूम में था।
अगली सुबह मैं दाखिले के लिए अपने प्रपत्र और दस्तावेजों के साथ कॉलेज पहुंचा। प्रवेश परीक्षा के बाद उस कॉलेज में मेरा दाखिला हुआ। अब हर रोज़ कॉलेज, कॉलेज से हॉस्टल। इसके अतिरिक्त मुझे दूर दुनिया के विषय में कुछ जानकारी नही थी। एक माह कैसे बीत गया पता भी नही चला। अभी तक मैं अपने कमरे में अकेला था, अब दो और नये लड़के इस कमरे में आ चुके थे। साथ रहते-रहते उनसे भी अच्छी दोस्ती हो गई। किन्तु वे विचारों में मेरे से बिल्कुल भिन्न थे। वे सामाजिक कम व्यक्तिगत ज्यादा थे। पर फिर भी हम लोग अच्छे दोस्त थे। हम लोग आने जाने से लेकर हर कार्य एक साथ करते थे। इधर मेरे एग्जाम भी करीब थे अतः मैने उन दोनों से थोड़ा दूरी बना रखा था। मैं रात में जल्दी सो जाता क्योंकि मुझे सुबह पेपर के लिए जल्दी निकलना पड़ता था। इस बीच मेरी उन दोनों से ना ठीक से बात हो पाती और ना ही मुलाक़ात। वे अक्सर रात में लेट आते और सुबह देर से जगते और जब तक मैं वापस आता था तब तक वे दोनों जा चुके होते थे। एग्जाम बाद जब मैं थोड़ा फ्री हुआ तो बाहर घूमने जाने की योजना बनने लगी वो दोनों जाने के लिए तैयार हो गये लेकिन कहां जाना है ये सब मुझे नही पता था ? मैं पूछना चाहा पर उन दोनों ने यह कहकर मना कर दिया कि ये तो तुम्हारे लिए सरप्राइज है। मैं भी खुशी-खुशी तैयार हो गया। शाम हुई और हम तीनों एक बाईक पे सवार हुए और चल दिए। पहले हम लोग पार्क गये और मौज-मस्ती की फिर वे मुझे वहां ले गए जहां उनका देर रात तक का अड्डा था। मैने बोला ये बियर बार भला यहां मेरे लिए क्या सरप्राइज होगा? उसने बोला यही तो सरप्राइज है। दोनों के साथ-साथ मैं भी चल दिया। दोनों ने शराब की दो-दो घूंट पीकर बोतल बढ़ाते हुए मुझे भी पीने के लिए इशारा किया। पहले तो मैं सोच में पड़ गया मैं क्या करूं इसका? फिर सोचा एक ही दिन तो बात है चलो पी लेते हैं। आधी बोतल खाली कर मैं भी गाने में मस्त होकर झूमने लगा। मैं तो जैसे-तैसे खुद को सम्भालते हुए सोफे पर जा गिरा और कब आँख लग गई पता भी नही चला। फोन अलार्म से आँख खुली तो देखा सुबह के दो बजे रहे थे। मैंने बोला अब निकलना चाहिए किसी तरह उन दोनों को राज़ी किया चलने के लिए और धीरे-धीरे बाईक ड्राइव करने लगा। कुछ दूर चलने बाद ट्रैफिक पुलिस ने बाईक पर तीन सवार देखकर हमें रोकना चाहा पर मैं बाईक की स्पीड तेज़ कर भागने की कोशिश कर ही रहा था कि उन्होंने हमारा पीछा करना शुरू किया और जब तक मैं खुद को और बाईक को सम्भाल पाता कि सामने से आ रही कार के टक्कर से हम वहीं ढेर हो गए। जैसे-तैसे हमे हॉस्पिटल तो पहुंचा दिया गया लेकिन हम तीनों में से एक दोस्त ने अपने जान की बाज़ी हार गया। मेरी तो जान बच गई पर घर वालों का सामना कर पाना बड़ा ही मुश्क़िल था। घटना के उस समय मुझे उतनी पीड़ा ना हुई जितनी की अब हो रही थी। उधर दोस्त को खोने का ग़म और इधर परिवार का विश्वास तोड़ने का अफ़सोस मानो अब जीने नही देगी।
वह दृश्य अभी भी मेरे आंखों के सामने कौंध रहा था।
इस घटना के बाद मैंने शराब पीकर गाड़ी ना चलाने की कसम तो खाई ही और साथ में यह भी संकल्प लिया कि जब तक कुछ बन ना जाऊं तब तक परिवार का सामना नही करूंगा।
https://khushiThought.blogspot.com
Very Good....Keep it up
ReplyDelete#Shivamkandandbro: thank you..
ReplyDeleteNice story..
ReplyDeleteThank you dear
DeleteSo nice dear..
ReplyDeleteThank you
Deletereally you described in this story now day's problem
ReplyDeleteThanks for appreciate 🙏🙏
Deletereally you described in this story now day's problem
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