केश

 



हे मधुसूदन! पतित पावन यह निर्मल काया।

गोविंद फिर ऐसा अनर्थ क्यूं; यह कैसी माया।।



बिखरा दिए केश द्रौपदी ने
दुःशासन अब तू बच ना पाएगा
किया है स्पर्श अग्नि को तूने
रणभूमि में इसका मूल्य चुकाएगा।

मैं ज्वाला हूँ अग्नि की
इसकी तेज तू सह ना पाएगा
जलकर भस्म पतिंगा जैसे
तू भी भस्म भस्म हो जाएगा।

इन मलिन हाथों को धो डाल तू
वरना काल का ग्रास बन जाएगा
ना काम आएंगे शत बन्धु तेरे
अकेले अपनी चिता सजाएगा।

रक्त उतर आया इन नैनों में
अब तू भी रक्त के अश्रु बहाएगा
जब सामना होगा तेरा पाण्डवों से
तू स्वयं तिल-तिल कर मर जाएगा।

ना कोई होगा साथ तेरे
जब अपने कुकर्मों का फल पाएगा
तू हंसी का पात्र बनेगा
तू अपयश का भागी बन जाएगा।

जिस कुल में तूने जन्म लिया
उसको भी तार तार कर जाएगा
करके खण्डित मर्यादा अपनी
पाप का भागी तू बन जाएगा।

-©® Khushi Kandu 'Leelanath'

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