सबक.....✏
इक पंछी उड़ा अज़नबी शहर की ओर : ले ताना-बाना बुनने को,अपने सपनो की डोर। ट्रेन अपने निर्धारित स्टेशन पे रुकी और सीटी बजते ही मैं नींद से जागा आँख मलते हुए बाहर देखा तो मेरा स्टेशन आ चुका था। मैं उतरने के लिए अपना सामान समेटने लगा और ट्रेन से उतरकर कैंटीन की तरफ़ बढ़ा, गर्मी की छुट्टियाँ चल रही थी इस कारण आने जाने वालों की भीड़ भी जबर्दस्त थी। गर्मी और भीड़ देखकर मैं ऊफ करना चाहा। पर करता भी क्या मैं, ये पेट जो भूख का मारा था। मन ही मन सोचने लगा जो सुकून अपने घर और गांव में है वो कहीं और नही है। मैं काउन्टर पर पहुंच कर मेन्यू कार्ड देखते हुये छोला-चावल का आर्डर देकर फिर से अपने बेंच पर आकर बैठ जाता हूं। और अपने सपनों में खो जाता हूं, मैं नये शहर में आकर काफ़ी रोमांचित था पर कहीं-न-कहीं मेरे मन में इक भय भी था कि इस नये शहर में स्वयं को स्थापित कर पाऊंगा भी या नही। फिर भी मैं स्वयं का बहुत बड़ा प्रशंसक रहा हूं इसलिए स्वयं को तसल्ली देते हुए मन ही मन दृढ़ निश्चय करने लगा और घर की स्थिती को बदलने के बारे में सोचने लगा। पर वक्त के बारे में कौन जानता है। तभी सामने से आवाज़ आती है भ