इक आज़ाद नज़्म....

 


मुकम्मल इश्क़ ना मिले तो ख़ुदा से मिलना; 

इस वास्ते दुनिया जुदा होके चलना।

मिल जाएगा मुकम्मल इश्क़-ओ-ख़ुदा दोनों ही;

बस अपनों से थोड़ा विदा लेके चलना।

 

जिस दुनिया में जी रहे हो, वो तुम्हारी दुनिया नहीं;

असल में हक़ीक़त क्या है, उसका तुम्हें पता ही नहीं।

जिस राह पर चल रहे हो, वो तुम्हारा रस्ता ही नहीं;

तुम बेज़ार हो ज़िंदगी से, ये जीवन इतना सस्ता भी नहीं।


जो तुम देख रहे हो इस जहां में, सबकुछ वैसा नहीं;

कई असरार छिपे हैं, इसका रंग भी गिरगिट जैसा ही।

यहां हर कोई नुमाइश के नुमाइंदे हैं;

पैदाइश से कोई ख़ुदा के बन्दे नहीं।


ज़मीर-ए-पाक बिना यहां पर जीना बेकार है;

ज़ुबाँ-ए-इश्क़ यहां का सबसे बड़ा हथियार है।

ज़िंदगी मिली है, तो ख़ुदा के लिए भी वक़्त निकाल;

तुम भी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा हो, अब दुनिया के लिए बन मिसाल।


(*मुकम्मल:- पूर्ण/सफल, *इश्क़-ओ-ख़ुदा:-प्रेम और भगवान, *बेज़ार:- उदास, *असरार:- रहस्य, *नुमाइश:- प्रर्दशन, *नुमाइंदे:- प्रतिनिधि, *ज़मीर-ए-पाक:- पवित्र आत्मा, *ज़ुबाँ-ए-इश्क़:- प्रेम की भाषा, *ख़ल्क़-ए-ख़ुदा:- ईश्वर की रचना।)





    

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