चौराहे की चाय....

 




    मैं हर रोज सुबह सैर करने निकलती तो चौराहे की तरफ़ ज़रूर देखती थी। हलांकि मैं रुकती नही थी, पर वहां खड़े हुए कुछ महान विभूतियों के दर्शन जरूर करती थी; और ध्यान लगा के सुनती थी, कि आज कौन से मुद्दे पर चर्चा चल रही है। 

ये हमारे मुहल्ले के कुछ ऐसे लोग थे जिनकी गाथा अनंत थी। सुबह की ये चाय-चर्चा तो देखते बनती थी। और तो और इन महान आत्मओं की सुबह का शौच भले ही छूट जाए पर इनकी चाय और चर्चा ना छूटने पाए। भले ही ये लोग उन बातों और आदर्शों को व्यवहार मे लाये या ना लाये लेकिन उन आदर्शों का नाम गिनाए बिना इनकी चाय-चर्चा मानो अधूरी थी। 

"भई सवाल था कि, चर्चा में कोई एक दूसरे से पीछे ना रह जाए।" 

कोई भी एक दूसरे से कम नही था। 

कभी देश की बदहाली पर चर्चा चलती तो कभी राजनीतिक दल के किस्से होते थे। लेकिन हर रोज की तरह उस दिन चाय चर्चा कुछ ज्यादा खास थी। भई! उस दिन ना चाय थी और ना ही चाय वाला।

किसी कारणवश उस दिन चाय वाला अपनी दुकान लगाने में असर्मथ था। भगवान् जाने क्या मजबूरी आन पड़ी थी। वो बेचारा अकेला ठहरा घर -दुकान चलाने वाला, साथ में बीबी, दो बच्चे और बूढ़ी मां। 

भला अच्छा खासा पढ़ा लिखा, पोस्ट ग्रेजुएट। वक्त की क्या मजाल जो किसी को अपने आगे ना झुकाए।

तो बात करते हैं उस दिन की,

 उस दिन महान विभूतियों ने चाय वाले को ही चर्चा का विषय बनाया। शुरू हो गई गाथा, लगे सब अपना अपना तर्क देने। चाय वाला तो वहां उपस्थित नही था शायद इसी का फायदा उठाकर लोगों ने उसका खूब विश्लेषण किया, एक के बाद एक खामियां गिनाई उसके बारे में। ऐसा लग रहा था मानो अब इनका बखान कभी खत्म ही नही होगा। ये मुहल्ले की सामान्य चर्चा कम, ऐसा लग रहा था जैसे लोकसभा में विपक्ष दल को नीचा दिखा रहे थे।

अब चर्चा थोड़ी जोर पकड़ रही थी, क्योंकि वक्त हो रहा वापस घर लौटने का।

1अच्छा खासा पढ़ा - लिखा फिर भी चाय बेच रहा हैं। चाहे तो स्वयं की पाठशाला खोल कर बच्चों को पढ़ा सकता है।

2 तभी दूसरे महान आत्मा अपना तर्क देते हैंं- भई! जब पढ़ाई का समय था तब पढ़ता ही कहां था जो अब पाठशाला खोलकर बच्चों को पढ़ा पाएगा।

3 अरे! क्या बात करते हैं "वकील साहब" ये छोटी जातियों के लोग हैं इनकी सोच भी छोटी होती है, कहां से इन्हें बड़ी तरकीब सूझेगा।

4 वैसे आज है कहां? होगा कहीं मजूरी धतूरी कर रहा होगा।

ऐसा था हमारे मुहल्ले के महान विभूतियों का विचार उसके प्रति। स्वयं बड़ी जाति के होकर भी उसके प्रति छोटी सोच रखना। स्वयं में इतनी क्षमता नही थी कि उसके बराबर मेहनत कर सके, खुद देश को बदल नही पा रहे हैं, बस सुबह-सुबह फिजूल की बातें कर लोगों का ध्यान भटकाते थे। 

हद तो तब हो गई जब उस छोटी जाति के व्यक्ति के हाथ का चाय पीकर सुबह-सुबह दम लेते और अपनी-अपनी गाथा गाते थे, और आज उसी की बुराई कर रहे थे।

इसे कहते हैं "जिस थाली में खाना उसी थाली  में छेद करना।"


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