【घर से दूर मैं मजबूर】
बात उन दिनों की है जब मैं लखनऊ में शास्त्रीय संगीत की छात्रा थी। घर से दूर इक अज़नबी शहर में रहते हुए हर छोटे-बड़े अनुभव को आत्मसात करने की कोशिश कर रही थी। ऐसे भीड़ -भाड़ वाले शहरो में हर रोज़ कुछ ना कुछ घटनाएं अवश्य होती रहती हैं। इन सब घटनाओं को मद्देनजर रखते हुए, मैं खुद को उस परिवेश में ढालने की कोशिश कर रही थी। यह मेरा शुरूआती दौर तो नही था, "यथा- तथा लगभग दो वर्ष बीत चुके थे" फिर भी मैं यहां के अपरिचित लोगों से भयभीत रहती थी। जैसा कि हर लड़की के साथ होता है। शुरुआत के दो वर्ष मैं अपने ही कॉलेज की शिक्षिका के साथ रही। जो की मेरी शिक्षिका कम गुरु माँ और बड़ी बहन ज्यादा थीं। हां वो थोड़ी क्रोधित स्वाभाव की थीं पर साथ में साफ दिल और स्पष्टवादी महिला भी थीं। इस प्रकार उनके साथ रहते हुए लोगों से अच्छी खासी पहचान बनना स्वाभाविक है। तत्पश्चात मुझे किसी कारणवश उस कॉलेज से अपनी पढ़ाई और उनका साथ छोड़ना पड़ा किन्तु मैंने संगीत सीखना जारी रखा। उन दिनों मेरी क्लास सुबह हुआ करती थी। जोकि एक घंटे की क्लास और उसमें भी मैं दस मिनट लेट पहुंचती थी। हर रोज़ क