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केश

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  हे मधुसूदन! पतित पावन यह निर्मल काया। गोविंद फिर ऐसा अनर्थ क्यूं; यह कैसी माया।। बिखरा दिए केश द्रौपदी ने दुःशासन अब तू बच ना पाएगा किया है स्पर्श अग्नि को तूने रणभूमि में इसका मूल्य चुकाएगा। मैं ज्वाला हूँ अग्नि की इसकी तेज तू सह ना पाएगा जलकर भस्म पतिंगा जैसे तू भी भस्म भस्म हो जाएगा। इन मलिन हाथों को धो डाल तू वरना काल का ग्रास बन जाएगा ना काम आएंगे शत बन्धु तेरे अकेले अपनी चिता सजाएगा। रक्त उतर आया इन नैनों में अब तू भी रक्त के अश्रु बहाएगा जब सामना होगा तेरा पाण्डवों से तू स्वयं तिल-तिल कर मर जाएगा। ना कोई होगा साथ तेरे जब अपने कुकर्मों का फल पाएगा तू हंसी का पात्र बनेगा तू अपयश का भागी बन जाएगा। जिस कुल में तूने जन्म लिया उसको भी तार तार कर जाएगा करके खण्डित मर्यादा अपनी पाप का भागी तू बन जाएगा। -©® Khushi Kandu 'Leelanath'

【विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस 28 जुलाई】

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 ( विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस  २८ जुलाई) मात्र पेड़ नहीं  प्रकृति भी बचानी होगी, हर जीव जन्तु को हर पशु पक्षी को बारिश की बूंदों को बचे कुचे तालाबों को कीट पंतगों को इतना ही नहीं! जो संघर्ष कर रहे हैं  उनका संघर्ष मिटाना होगा। जो विलुप्त हो चुके हैं  उन्हें वापस लाना होगा। आने वाले कल को जीवित रहने योग्य बनाना होगा। जिसके लिए मात्र पेड़ नहीं  प्रकृति भी बचानी होगी .... -©® Khushi Kandu 'Leelanath'

【चौपाई-२】

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   (चौपाई- २) काल चक्र मति ऐसा फेरा। गिरा गर्त छाया अंधेरा।। दया करो हे नाथ हमारे। सकल भूवन जिनके सहारे।। भावार्थ:-  समय ने मेरी बुद्धि को इस प्रकार फेर दिया (भ्रमित कर दिया) कि मुझे उचित अनुचित सब भूल गया फलस्वरूप गर्त (नर्क) में गिर पड़ा हूँ जहां अंधकार ही अंधकार है। जिनके सहारे सारा संसार है और जो सबके स्वामी हैं हम पर दया करें। काल चक्र मति ऐसा फेरा। गिरा गर्त छाया अंधेरा।। २ १  २१   ११  २२   २२,  १२  २१  २ २   २ २२ दया करो हे नाथ हमारे। सकल भूवन जिनके सहारे।। १२  १ २ २  २२  १२२,  १११    २२   ११२   १२२

【चौपाई】

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चौपाई-१ तन पे परै जो काट हमहूँ। विचलित ना हो प्रभु मन कबहूँ।। दे आशीष हमें कुछ ऐसा। धीरज धरै दूर हो क्लेशा।। भावार्थ:- हे प्रभु! इस तन पर जो भी बीते, उसको सहजता से काटूं, और हमारा मन कभी इससे विचलित ना हो। हे प्रभु! हमें कुछ ऐसा ही आशिर्वाद दीजिए कि हर परिस्थिति में हम अपना धैर्य बनाए रखें और शीघ्र ही सारे दुःख क्लेश दूर हों जाए। तन/ पे/ परै/ जो/ काट/ हमहूँ। विचलित/ ना/ हो/ प्रभु/ मन २/  २/ १२/  २/ २१/  २२,     २ २/    २/   २/ ११/    २/ कबहूँ। २ २ दे/ आशीष/ हमें/ कछु/ ऐसा। धीरज/ धरै/ दूर/ हो/ क्लेशा।।  २/ २२१/ १२/ २/ २ २,  २ २/  १२/  २१/  २/     २२

【दोहा संग्रह】

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  ।।दोहा।। हे प्रथम पूज्य विघ्नेश, बाधा हरते आप। आपके शुभागमन से, पूर्ण होते काज।।१।। ।।। हरी दर्शन की लालसा, भोर संध्या रैन। आओगे कब हे हरी, भीगत मोरे नैन।।२।। ।।। कैसी यह लड़ाई मनु, कैसा है अभिमान। चार दिन की है यात्रा, अंत में है श्मशान।।३।। ।।। छड दे प्यारे पाप कर्म, जप ले उसका नाम। चल उस डगर पे पगले, जो जाता प्रभु धाम।।४।। ।।। विचरत हैं सभी बाहर, जैसे कोई सांड। झांके न केहू अंदर, जहां सोई ब्रह्मांड।।५।। ।।। प्रेम पथ पर बाधा अति, है जानत संसार। जो किया सो उबर गया, बिनु पढ़े वेद सार।।६।। ।।। अरे मूर्ख मानव दैत्य , आचरण ले सुधार। पीटेगा तू एक दिन, जन करेगा प्रहार।।७।। ।।। अंतर्मन के सागर में, खोजत जैसे 'नीर'। 'मैं' की भावना तज कर, समझे जैसे पीर।।८।। ।।। लिखूं दोहा-चौपाई, अरू कुण्डलिया-छंद। बस यही भाए हमको, इ कबहु ना हो बंद।।९।। ।।। वस्त्र सुवर्ण से मन मोहे, जिसकी आयु है कम। यदि सद्गुण से हिय छुए, तो चक्षु ना हो नम।।१०।। ।।। संकट मोचन रामभक्त, बाला तेरो नाम। हे हनुमंत दया करो, आपको नित प्रनाम।।११।। ।।। सघन अंधेरा छाया, आओ मेरे श्याम। भीति लागै अति मोहे, पूरन ना हो काम।।१

चौराहे की चाय....

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      मैं हर रोज सुबह सैर करने निकलती तो चौराहे की तरफ़ ज़रूर देखती थी। हलांकि मैं रुकती नही थी, पर वहां खड़े हुए कुछ महान विभूतियों के दर्शन जरूर करती थी; और ध्यान लगा के सुनती थी, कि आज कौन से मुद्दे पर चर्चा चल रही है।  ये हमारे मुहल्ले के कुछ ऐसे लोग थे जिनकी गाथा अनंत थी। सुबह की ये चाय-चर्चा तो देखते बनती थी। और तो और इन महान आत्मओं की सुबह का शौच भले ही छूट जाए पर इनकी चाय और चर्चा ना छूटने पाए। भले ही ये लोग उन बातों और आदर्शों को व्यवहार मे लाये या ना लाये लेकिन उन आदर्शों का नाम गिनाए बिना इनकी चाय-चर्चा मानो अधूरी थी।  "भई सवाल था कि, चर्चा में कोई एक दूसरे से पीछे ना रह जाए।"  कोई भी एक दूसरे से कम नही था।  कभी देश की बदहाली पर चर्चा चलती तो कभी राजनीतिक दल के किस्से होते थे। लेकिन हर रोज की तरह उस दिन चाय चर्चा कुछ ज्यादा खास थी। भई! उस दिन ना चाय थी और ना ही चाय वाला। किसी कारणवश उस दिन चाय वाला अपनी दुकान लगाने में असर्मथ था। भगवान् जाने क्या मजबूरी आन पड़ी थी। वो बेचारा अकेला ठहरा घर -दुकान चलाने वाला, साथ में बीबी, दो बच्चे और बूढ़ी मां।  भला अच्छा खासा पढ़ा लि

संगीत और साहित्य....

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   [संगीत और साहित्य] संगीत वीणा की तान, साहित्य जग का मान  एक प्रेम का घोतक, दूसरा सत्य की खोज। संगीत सुरों की वाणी, साहित्य जग का दर्पण एक करे पुलकित मन, दूसरा दिखाए मार्ग। संगीत एक साधना, साहित्य शुध्द भावना एक सिखाए भक्ति, दूसरा ले जाए उस ओर। संगीत ही सरस्वती, साहित्य भी वेद-पुराण एक करो धारण, दूसरा स्वयं चलके आए पास। संगीत संवारे सृष्टि, साहित्य करे जग का उत्थान दोनों ही एक दूसरे के पूरक, दोनों ही आधार। जैसे अर्धनारीश्वर, एक पौरुष दूसरा प्रकृति दोनों का सम्मलित रूप बने, शिव और शक्ति। -©®Khushi Kandu Leelanath